January 1, 2020

सुर सम्राट उस्ताद अली अकबर खां

LOKOGANDHAR ISSN : 2582-2705
Indigenous Art & Culture

अभिजीत रायचौधरी

देश एवं विदेश में भारतीय शास्त्रीय स्वर वाद्य संगीत की चर्चा हो, उस्ताद अली अकबर खां, पं0रविशंकर, उस्ताद विलायत खां, पं0 निखिल बनर्जी, पं0 शिव कुमार शर्मा, पं0 हरिप्रसाद चौरसिया जी, उस्ताद अमजद अली खां आदि की चर्चा न हो, यह हो ही नहीं सकता।

मैहर घराने के शिखर पुरुष उस्ताद अली अकबर खान का जन्म 14 अप्रैल 1922 को ग्राम शिवपुर, जिला त्रिपुरा में हुआ। बहुत अल्प आयु में ही उन्होंने अपने पिता बाबा उस्ताद अलाउददीन खां से सरोद वादन की पारम्परिक शिक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया। बाबा उस्ताद अलाउद्दीन खां ने रामपुर के उस्ताद अहमद अली तथा उस्ताद वजीर खां से सरोद वादन की शिक्षा प्राप्त की थी। बाबा उस्ताद अलाउद्दीन खा सरोद के साथ-साथ वायलिन, सुरसिंगार, क्लैरियनेट, इसराज, तबला आदि अनेक वाद्यों के कुशल कलाकार तो थे ही, एक आदर्श गुरु भी थे। उनके कठोर अनुशासन एवं अली अकबर खां की कड़ी मेहनत और प्रतिदिन पन्द्रह-सोलह घण्टों के अभ्यास ने युवावस्था में ही उन्हें एक श्रेष्ठ सरोदवादक के रुप में प्रतिष्ठित कर दिया था। उन्होंने वर्ष 1936 में इलाहाबाद के संगीत-सम्मेलन में अपने सरोद वादन का पहला कार्यक्रम प्रस्तुत किया और श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया।

मैंने सर्वप्रथम अली अकबर खां साहब का सरोद फरवरी, 1972 में बनारस की नागरी नाटक मंडली प्रेक्षागृह में सुना था। उन्होंने राग दरबारी, जोगिया, कालिंगड़ा और भैरवी बजाए थे जिसे सुनकर मैं इतना प्रभावित हुआ था कि तत्काल स्लाइड गिटार बजाना छोडकर मैंने सरोद बजाना आरम्भ कर दिया जबकि स्लाइट गिटार पर तात्कालिक फिल्मी गीत बजाने से अच्छी खासी वाहवाही मिलती थी और सरस्वती पूजा आदि में कार्यक्रम करने का भी गौरव मिलता था, पर इन सब पर प्रभावी रही उस्ताद अली अकबर खां की जादुई सरोद जिसके सम्मोहन में मैं ही क्या, अनेक जिज्ञासु कलाकार सरोद की ओर आकर्षित हुए।

उस्ताद अली अकबर खा की वादन विशिष्टता कुछ वाक्य में कही नहीं जा सकती। उसके बारे में कुछ लिखना सूरज को दिया दिखाने के समान है। फिर भी अपनी धृष्टता के लिए क्षमा मांगते हुए सुधी पाठकजनों के लिए अली अकबर खा से पूर्व सरोदवादन और उनकी विशिष्टता का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत कर रहा हूं। (पुनः दोहरा रहा हूं कि मैं अब भी स्वयं को संगीत का एक विद्यार्थी समझता हूं, विभिन्न पत्रिकाओं और किताबों को पढ़कर, सरोद वादन के अनेक प्रदर्शनों को सजीव, कैसेट अथवा सी0डी0 आदि से सुनकर एवं मेरे गुरु पं0 भोलानाथ भट्टाचार्य जी के साथ बातचीत के दौरान तथा अपनी सोच से जो समझा, उसे प्रस्तुत कर रहा हूं, अस्तु किसी त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।)

पूर्व में सरोद वादन

पूर्व में अर्थात 19 वीं सदी व 20 वीं सदी के पूर्वाद्ध में सरोद का ड्रम अण्डाकार, लगभग 10 से 10.5 इंच व्यास का होता था और प्लेट थोडी अधिक लम्बी प्रायः 20 इंच की होती थी। उसे अंग्रेजी स्केल ‘ए’ अर्थात चौथी काली या उससे हाफ टोन अधिक पर मिलाया जाता था। सरोद में सुर का आस (ठहराव) अधिक न होने के कारण छोटा आलाप, फिर विलम्बित एवं मध्य तथा द्रुत लय पर गतें बजाई जाती थी।

सुधी पाठकजनों को अवगत कराना है कि पूर्व में सरोद पर छोटा ख्याल की बन्दिश बजाने की प्रथा नहीं थी। गतें बजाई जाती थी जो रागों के स्वरुप, पकड़ आदि को ध्यान में रखकर सरोद के बोल यथा-डा, रा, डिरि, डार, रडा आदि के प्रयोग करके रचना की जाती थी। ये रचनाएं प्रायः दो, तीन आत्ति की होती थी। जिसमें सम को बहुत ही सुन्दर ढंग से दिखाते हुए राग की बढ़त एवं स्वरुप को भी दिखाया जाता था। ग्वालियर घराने के उस्ताद हुसैन अली के पुत्र उस्ताद असगर अली, मुराद अली एवं नन्हे खां (उस्ताद हाफिज अली खा के पिता) ने ऐसी अनेक रचनाएं बनाईं। कहा जाता है कि इनमें उस्ताद मुराद अली काफी सिद्धहस्त थे। उनके द्वारा रचित सरोद की गतों का उनके दत्तक पुत्र उस्ताद अब्दुल्ला खां एवं उनके पुत्र मोहम्मद अमीर खां द्वारा बंगाल में काफी प्रचार-प्रसार किया गया।   मोहम्मद अमीर खां (सरोदिया) के शिष्यों में पं0 राधिका मोहन मैत्राजी एवं मेरे गुरु पं0 भोलानाथ भटटाचार्य जी थे।

पूर्व के सरोद बाज में विलम्बित गत (जिसे अब मसीतखानी गत कहा जाता है) के आलाप में छोटा छन्द एवं सरोद के बोल ‘डा’ का प्रयोग अधिक किया जाता था। द्रुत लय में लड़ी, लाग-लपेट, लड़गुथाव में सरोद के अन्य बोलों का प्रयोग किया जाता था। झाला में पहले चिकारी में एक स्ट्रोक और नायकी तार पर तीन स्ट्रोक किया जाता था (इसे उलटा झाला भी कहा जाता है)। शनैः शनैः लय बढ़ने पर सुलट झाला अर्थात नायकी पर एक और चिकारी पर तीन स्ट्रोक दिया जाता था। और अधिक लय पर नायकी तार पर दो और चिकारी पर दो स्ट्रोक किया जाता था। प्रायः तबला एवं पखावज के कायदे तथा टुकड़े का उपयोग सरोद के विभिन्न बोलों के माध्यम से किया जाता था। उदाहरण के लिए तबले के बोल धिन धिन तिरकिट धिना का प्रयोग सरोद में डा- डा- डाराडा- डारा में बजाया जाता था। इसी प्रकार अन्य बोलों का प्रयोग भी सरोद में किया जाता था। पखावज और तबले के साथ संगत से वे वादन शैलियां श्रोताओं को काफी आकर्षक भी लगती थीं।

उस्ताद अली अकबर खां के सरोदवादन की विशिष्टता

पूर्व में सरोद का ड्रम अण्डाकार और व्यास 10 से 10.5 इंच का होता था। उस्ताद अलाउद्दीन खां ने सरोद के ड्रम को गोलाकार और 11-11.5 इंच किया और तरफ के पन्द्रह तार प्रयोग किए (जो पूर्व में 11 एवं 13 हुए करते थे)। इस परिवर्तित सरोद का प्रयोग अली अकबर खां ने थोड़े ऊंचे स्केल अर्थात ‘सी’ एवं ‘सी शार्प (पहले सफेद एवं पहले काले) में ट्यून किया। इस समय सरोद के ड्रम पर प्रयोग होने वाले चमड़े को अच्छे टेन्शन (खिंचाव) देने के लिए उपकरण भी कोलकाता के कारीगर तैयार कर लिए थे जिससे सरोद की टोनल क्वालिटी और अधिक सुमधुर हो गयी। अली अकबर खां साहब आलाप में अत्यधिक ‘रा’ बोल का प्रयोग करते थे। (जिसका प्रयोग पूर्व में नगण्य हुआ करता था)। खा साहब किसी राग का स्वरुप अधिक समय न लेकर प्रदर्शित करते थे। आलाप में ‘रा’ से कृन्तन का प्रयोग करते हुए मन्द्र सप्तक में स्वर विस्तार, फिर दो, तीन मुख्य स्वर का प्रयोग करते हुए मध्य सप्तक में चले जाना उनकी स्वाभाविक वादन पद्धति थी। इससे पूर्व राग को कुछ देर तक छुपाकर बजाने की प्रथा थी। नतीजतन श्रोता सोचते रहते थे कि कौन सा राग बजेगा। मैंने खां साहब को एक स्ट्रोक में (रे, सा, नि, ध, नि, रे) राग दरबारी का स्वरुप बजाते हुए सुना है। आलाप के अन्तरा भाग में बिना किसी लागलपेट के अली अकबर खा तार सप्तक में चले जाते थे। अन्य कई तन्त्रकारों को मैंने नि या ध पर काफी ठहर कर तार सप्तक के सां पर जाते हुए सुना है।

उनका बजाया हुआ राग ‘श्री’, ‘नटभैरव’, ‘देश मल्हार’ एवं ‘चन्द्रनन्दन’ (उनके द्वारा रचित) मेरे सूक्ष्म ज्ञान के अनुसार अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचना रही। विलक्षण बात यह कि उस्ताद अली अकबर खां कभी-कभी ‘श्री’ जैसे रागों के साथ भी स्टेज में बजाते हुए एक्सपेरिमेण्ट करते थे। प्रसिद्ध संगीत आलोचक श्री नीलाक्ष गुप्त लिखते हैं कि 14 दिसम्बर 1979 में ‘कला मन्दिर’ प्रेक्षागृह कोलकाता में राग ‘श्री’ अवतारणा करते समय खां साहब ने सारे, सारे, रे, सा, नि का प्रयोग किया फिर गन्धार पर ठहर कर कोमल ऋषभ में आए। इस तरह का प्रयोग अली अकबर खां ही कर सकते थे। उनके बजाए हुए राग देश, मल्हार एवं नट भैरव की कैसेट/ सी0डी0 आज भी संगीत रसिक के लिए अनमोल है। अली अकबर खां ने कई रागों का सृजन भी किया है जिनमें मुख्यतः चन्द्रनन्दन, हिण्डोल–हेम, लाजवन्ती, भूप-माण्ड, भैरवी भटियार, मिश्र शिवरंजनी, गौरी मंजरी आदि हैं। गौरी मंजरी में सा रे रे ग म म प ध नि नि अर्थात दस स्वर का प्रयोग किया जाता है। कोमल गन्धार और शुद्ध धैवत का प्रयोग नहीं है।

आज के किसी तन्त्रवादक के लिए ऐसे रागों को बजाना मुश्किल का काम है। इन रचनाओं को सुनने से लगता है कि अली अकबर खां सरोद वादन के एक उच्च कोटि के सुरसृजनकार भी थे।

उस्ताद अली अकबर खां को अनेक सम्मान मिले जिनमें मुख्यतः अकादमी सम्मान, पद्मभूषण, पद्मविभूषण, मैक आर्थर पुरस्कार तथा यूनाइटेड स्टेट्स का उच्चतम नेशनल सम्मान एंडोवमेण्ट फार द आर्ट आदि प्रमुख है। अमेरिकन टेलीविजन पर सरोद वादन पेश करने वाले वे प्रथम भारतीय थे। प्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोंसले के साथ भी उनकी रचना ‘लिगेसी’ एक अतुलनीय कृति है। उन्हें सुर सम्राट उनके पिता बाबा अलाउद्दीन खां कहा करते थे जो उनके नाम के साथ उपाधि के तौर पर स्मरण किया जाता है।

सुर साधना के ऐसे विभूति भी बहुत दिनों तक इस लोक में नहीं रह पाते। लम्बे समय से किडनी की बीमारी के चलते 19 जून 2009 को उनका चिर मिलन परमात्मा से हो गया। कहा जाता है उस दिन भी वे अपने शिष्यों को राग ‘दुर्गा’ और ‘कौशी कान्हडा’ की शिक्षा दे रहे थे। परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि वह उनकी आत्मा को शान्ति दें और हम संगीत विद्यार्थियों को वह शक्ति दें कि हम उनकी विरासत को सम्भाल पाएं और परम्परा को आगे बढ़ा सकें।

अभिजीत रायचौधरी

सरोद वादक

संदर्भ

१।  (पत्रिका छायानट अंक संख्या 125, पृष्ठ. 6)

२। (देश 14.06.1997, पृष्ठ संख्या-27)

३। (छायानट अंक संख्या 125, पृष्ठ. 26)