January 1, 2022

संस्कृत नाटकों में राजनीति के आयाम : भास के महाभारत आधारित नाटकों के विशेष संदर्भ में।

LOKOGANDHAR ISSN : 2582-2705
Indigenous Art & Culture

MADAN MOHAN

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                        संस्कृत नाटक भारतीय रंगमंच के आरंभिक काल को दर्शाता है जिसका आधार नाट्यशास्त्र है। भारतीय रंगमंच की शुरुआत नाट्यशास्त्र से ही मानी जाती है जिसकी भाषा संस्कृत है। नाट्यशास्त्र में मिले संदर्भ के अनुसार भारतीय रंगमंच परंपरा के प्रथम नाटक में ही राजनीति का समावेश हो जाता है जब नाटक देवासुर-संग्राम को भरतमुनि के शिष्यों के द्वारा खेला गया जिसे देखकर असुरों को लगा कि ये उनके खिलाफ राजनीतिक षड्यंत्र है असुरों को नीचा दिखाने के लिए और फिर असुरों ने बहुत उत्पात मचाया जिसके परिणाम स्वरूप रंगमंडप विधान तैयार किया गया तथा रंगमंडप का निर्माण कर उसके अलग अलग कोने में देवताओं को बैठाया गया उसकी रक्षा करने के लिए साथ ही जर्जर ध्वज की स्थापना भी की गई।

                       चुकि नाटक आम जीवन का ही प्रतिविम्ब है अतः जब जीवन ही राजनीति से अछूता नहीं है तो रंगमंच कैसे रह सकता है। आमतौर पे राजनीति का जो मतलब लोग समझते हैं उसकी बात नहीं कर रहा क्योंकि राजनीति का सही अर्थ है किसी समूह, समाज, राज्य अथवा देश की उन्नति के लिए उसके विकास के लिए एक नीति तैयार करना तथा उसे लागू करने के लिए ठोस कदम उठाना अतः हम एक छोटे से परिवार को चलाने के लिए भी राजनीति का सहारा लेते हैं। यही वजह है कि जब से नाटकों का लेखन आरम्भ हुआ और उसका मंचन होने लगा तब से ही उसमे राजनीति किसी न किसी रूप में विद्यमान हो गयी और आरम्भ से अब तक जितने भी नाटक लिखे गए जिन भी भाषा मे लिखे गए सब मे थोड़ी बहुत राजनीति अलग – अलग स्वरूप में दिखाई देती है उसके अलग अलग आयाम देखने को मिलता है।

                     विभिन्न युग अथवा समय के नाटककारों के नाट्यरचनाओं में उस युग की राजनीति की झलक मिलती है जो समय परिवर्तन के परिवर्तित रूप

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में उभर कर सामने आई है। चाहे वो आदिकाल, मध्य काल अथवा आधुनिक काल के नाटककार हों सबने अपनी रचनाओं में समकालीन राजनीति के स्वरूप को पिरोया है। बात करें  तीनो काल के संस्कृत नाटककारों यथा भास, कालिदास, भवभूति, शूद्रक, भट्टनरायण, महेंद्र विक्रमवर्मन, क्षेमेन्द्र, विशाखदत्त, मुरारि, राजशेखर, अश्वघोष, हर्ष, चंद्र, राजशेखर आदि के अधिकांश नाटकों में राजनीति के विभिन्न पहलुओं को हम देख पाते हैं।

         चाहे वह प्रतिमानतकम हो या अभिषेक नाटक, बालचरित हो अथवा उरुभंगम या कर्णभरम, अभिज्ञान शाकुंतलम, मालविकाग्निमित्र, वेणीसंहार, मृच्छकटिक, अविमारक, स्वप्नवासवदत्ता, उत्तररामचरित, मुद्राराक्षस, किरातार्जुनीयम, मेघदूत, शिशुपाल वध, विक्रमोर्वशीयम, कुमार सम्भवम, प्रतिज्ञा यौगन्धरायण, रावण-वध, त्रिपुरदाह, समुद्रमंथन, रुक्मिनिहारण, महावीर चरित, आदि, सभी नाटकों में राजनीति की झलक देखने को मिलती है या यों कह सकते हैं कि केवल झलक ही नही वल्कि राजनीति की एक मजबूत व्याख्या भी मिलती है जो हमारे समाज की राजनीतिक दृष्टि सशक्त करने में एक अहम भूमिका निभाती है।

                     प्रथम नाटककार भास की बात करें तो उनके सभी नाटकों में कुछ न कुछ राजनीतिक तत्व हैं जो हमे एक मजबूत राजनीति का पाठ पढ़ा जाते हैं। उनका कोई भी नाटक राजनीति से अछूता नहीं है। उनके किसी भी नाटक की बात करें चाहे रामायण आधारित नाटक हों या महाभारत आधारित अथवा भागवत कथा मिश्रित नाटक हों सभी मे राजनीति की एक अतुलनीय व्याख्या मिलती है, जो राजनीति के विभिन्न आयाम को प्रदर्शित करती है। उनके नाटकों में जो राजनीति का स्तर है वह पायदान दर पायदान सशक्त होता दिखाई देता है।

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उनके नाटकों में महाभारत आधारित नाटकों की बात की जाए तो उनमे राजनैतिक दृष्टि से एक क्रम उभर कर सामने आता है। उरुभंगम, कर्णभराम, दूतवाक्यम, दूत घटोतकचम, मध्यमव्यायोग और पंचरात्रम इनके लिए विद्वानों का मानना है कि भास ने एक अलग ही महाभारत की रचना की है जो महाभारत के घटनाओं से तो मिलते हैं पर साथ मे एक निष्कर्ष भी छोड़ जाते हैं। भास के नाटक पंचरात्र को केंद्र में रखकर देखने पर यह पता चलता है कि इसके अलावा जितने भी नाटक हैं उनमें महाभारत की घटनाएं समान रूप से तो चलती है किंतु निष्कर्ष में पंचरात्र के रूप में एक उपाय बताया है जिससे महाभारत का युद्ध बिना किसी लाग – लपेट के टाला जा सकता था। पंचरात्र में गुरु द्रोणाचार्य के द्वारा एक बहुत ही सुंदर राजनीतिक चाल का वर्णन किया गया गया है जो आसानी से युद्ध की संभावना को भी खत्म कर सकता था साथ ही भास यह भी बताने की कोशिश करते हैं कि जब बच्चे आपस मे झगड़ रहे हों तब गुरु और बड़े बुजुर्गों को आगे बढ़कर उसका ऐसा निदान ढूंढना चाहिए जिससे विनाश को टाला जा सके या विनाश की संभावना को खत्म ही कर दिया जा सके।

“Bhasa has introduced certain changes in the play: For instance, Krishna himself gives a hint to Bhima to smash Duryodhan‟s thighs. The changes introduced by the dramatist offer new perceptions in the character of Duryodhan, the protagonist of the play. Duryodhan has been transformed completely and made Suyodhan (good warrior) here.”

                       युद्ध मे किसी भी प्रकार की भावना का कोई स्थान नहीं होता युद्ध जीतने के लिए सबसे ज़रूरी है सही समय पर फैसला लेना चाहे वह फैसला छल का ही क्यों न हो। फैसला गलत या सही नही होता, वह फैसला

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किस समय अथवा स्थान पर लिया गया है यह महत्वपूर्ण होता है। भूमि पर गिरे निहत्थे दुर्योधन के जंघे को भीम के गदा से तोड़ने का फैसला यदि कृष्ण ने न लिया होता तो शायद आज पांडव युद्ध के विजेता के रूप में न जाने जाते। वहीं दूसरी ओर अगर दुर्योधन को छल से न पराजित किया जाता तो शायद दुर्योधन नायक (सकारात्मक चरित्र) के रूप में उभर कर न आता। क्या उस समय कृष्ण को इस बात का भान न होगा कि दुर्योधन के साथ छल करने से उसकी छवि सकारात्मक हो जाएगी? अवश्य होगा ! फिरभी उन्होंने यह फैसला लिया क्योंकि एक बेहतर राजनीतिज्ञ होने के कारण वह जानते थे कि उस समय की प्राथमिकता पांडवों (जिसके पक्ष में वो थे) को विजय दिलाने की है ना कि यह सोचने की कि दुर्योधन की छवि बिगड़ेगी या बनेगी। राजनीतिक दृष्टि से समग्रतम परिणाम मायने रखता है न कि व्यक्तिगत। कर्णभारम में कर्ण के व्यक्तिगत छवि को केंद्र में रख कर भास ने राजनीति में भावनागत फैसले के दुष्परिणाम को दर्शाया है।

                        कर्ण को यह ज्ञात था कि उसका कवच कुंडल ही उसका रक्षक है उसके होते उसे कोई पराजित नहीं कर सकता फिर भी कर्ण ने अपनी दानवीर की छवि बनाये रखने के लिए कवच कुंडल दान कर दिए। पूरे नाटक में कर्ण के व्यक्तिगत भावनाओं के उतार-चढ़ाव का चित्रण है। युद्ध के पहले कुंती का कर्ण के पास आना, उससे भावनात्मक बातें करना और उस भावना में बह कर कुंती को उसके पांचों बेटे जीवित रहने का वचन देना, भावना में बह कर अपनी रक्षा कवच दान करना, युद्ध मे परसुराम के श्राप कि ‘उसका अस्त्र युद्ध मे काम न करेगा’ के भावना मन मे लाकर आत्मविश्वास खो देंना आदि। कर्ण अपनी व्यक्तिगत भावना के चलते अपनी व्यक्तिगत छवि को बनाये रखने के चक्कर मे इतने बडे राज्य और उसकी सेना को विनाश की ओर अग्रसर कर दिया। राजनैतिक दृष्टि से या किसी भी दृष्टि से हो भावनाओं में बह कर लिए गए फैसले का परिणाम कभी भी सकारात्मक नहीं होता वह किसी न किसी रूप में नुकसान पहुंचता ही है, फैसले हमेशा व्यावहारिक आधार पर सोंच समझकर आंखें खुली रख

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कर ही लेना उचित है और एक राजनैतिक व्यक्ति को इसका ध्यान हमेशा रखना चाहिए।

संदर्भ :

1.  URUBHANGAM (BREAKING OF THIGHS) – A TRAGEDY IN INDIAN TRADITION, DR. BHAGVANBHAI H. CHAUDHARI,  Scholarly Research Journal’s for Interdeciplinary Research, MAY-JUNE 2017, VOL- 4/31.

2. Sanskrit natakon me samaj adhyayan, Chitra sharma, sanskrit pustakalay 2736 kucha chela dariyaganj Delhi – 6, December 1969.

3. Mahakavi Bhasa : A Study, Baldeva Upadhyaya, The Chowkhambha Vidyabhavan, Varanasi-1, 1964.

4. Abhas Roooak (Khand-1), Prabhat Kumar Bhattacharya, Sasta Sahitya Mandal Prakashan, new Delhi – 01, 2016.

 MADAN MOHAN KUMAR, PhD Research scholar, Department of Drama, RBU, Kolkata.